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Sunday 1 July 2018

रात्रि





पश्चिम क्षितिज पर छाई लाली
जैसे छूटी हो अभी – अभी
रंग – भरी पिचकारी
उधर पूर्व– क्षितिज हुई गहरी काली ।
शनैः – शनैः आकाश पीलिया गयी
आंखों की सुरमई– सी गहरा गयी ।
हवा का गति – वेग हुआ मंद
पत्रों का हिलना हुआ बंद ।
कालिमा जम गई हर पत्र पर
खो गया कहीं जीर्ण पत्रों का मर्मर स्वर ।
दूर से आती है एक टूटती हुई आवाज
जैसे टूटा हो अभी – अभी
किसी कलाकार का साज।


- बिनोद कुमार  

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