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Sunday 19 January 2014

पृथ्वी–मंगल–युति (२००३) के प्रति


भागी जाती हवा से पूछा –
हे चंचला! क्यों उड़ी जाती हो ?
किधर को उड़ी जाती हो ?
किससे मिलने को आतुर मन जाती हो ?
रूकी नहीं तनिक भी
खिलखिलाती सरपट भाग गयी ।

धरती की हरियाली से पूछा –
अहा! कितनी मोहक तेरी जवानी ?
क्या मुझको देख विहँस रही हो ?
शरमा गयी! चुपचाप खेतों में दौड़ गयी ।

भागी जाती डैनों से आकाश नापती
क्यों कलरव करती जाती हो ?
इतना–सा ही जब चिड़ियों से पूछा –
किसने तुमको इतना सुंदर रूप दिया ?
किसने तुमका उड़ना सिखाया ?
थमी नहीं तनिक भी
पलक झपकते नीले नभ को नाप चली,
बस उसकी कलरव–अनुगूँज ही मेरे पास रही ।

‘अंगारक’ संग चमकते अमावस के तारों से पूछा – क्यों रात–रात भर टिमटिमाते हो ?
दिवस हुए कहाँ छुप जाते हो ?
क्या चंदा–संग मिल सूरज से
अबूझ आंख–मिचौनी करते हो ?
प्रत्युत्तर में बस आंखों में उसने सुरमई भर ली,
मंगल की चमक बढ़ और चली ।

गहरी काली निशा में दूर से आई एक आवाज ॐ
बोल उठा एक उलूक ही तत्क्षण –
‘कोऽहं – कोस्त्वं ……… कोऽहं – कोस्त्वं’ ‘मैं – मैं’ क्यों करता तू हरदम ।

२४ दिसंबर २००३ को www.anubhuti-hindi.org पर प्रकाशित ।

Friday 3 January 2014

हाँफता हुआ शहर


उस दिन
सुबह–सुबह
पहाड़ के नीचे
ऊँचे टीले पर
खड़े होकर
शहर को गौर से देखा
तो गम में डूब गया
देखा –
काले धुएँ की छतरी तले
वह शहर बलगमी कलेजे से
बेतहाशा काँप रहा रहा था ।

कारखाने की
बड़ी–बड़ी चिमनियाँ
बेखौफ धुआँ
उगलती जा रही थी
और भय की मारी बेचारी
सुकुमारी मुटठी–भर प्यारी हवा
पहाड़ की गोद में दुबक आयी थी।
साफ–साफ दिख रहा था
चिमनियों की सुरसा–तले
सारा शहर बेतरह हाँफ रहा था
बेतहाशा काँप रहा था
पनाह माँग रहा था।

 
२४ दिसंबर २००३ को www.anubhuti-hindi.org पर प्रकाशित ।