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Monday 16 July 2018

मच्छर



उनींदी में
बिस्तर पर
मैं लेटा था।
आया वह चुपके से
लगा कभी भरत व्यास
कभी ए . आर .  रहमान
कभी लता–पौड़वाल के
मधुर गीत संगीत सुनाने।

मन ही मन मैं बोला –
भाग अभी
मुझको सो लेने दे।
क्यों मानता,
नहीं आया
अपनी चाल से वह बाज
लगाया सोये सोये ही
कस के दो थप्पड़
था बड़ा अक्खड़
पड़ गया था मेरे पच्चड़
मर गया बेचारा मच्छड़।

- बिनोद कुमार

Sunday 1 July 2018

गजल


हमने जिंदगी–जहर को खूब जम के पिया है,
कांटे–तूफानों में भी हँस–हँस के जिया है।
                                तेरी तो आदत ही पड़ गयी है फेंकने की पत्थर,
                                उसे भी हमने गले से लगाया, फूलों–सा लिया है।
तेरी मधुर बातों में भी छुपा है खतरनाक खंजर, 
नाहक ही तुमने इश्क औ’ ईमान को बदनाम किया है।
                              जब–जब तुमने पायी है जिंदगी जीने को रोशनी,
                              तब–तब तुमने औरों के बास्ते बस अंधकार दिया है।
कैसे जिये कोई इस दुनिया में ‘विनोद’ खाकसार,
फिर भी हमने हँस–हँस जीने को ही जहर पिया है।


- बिनोद कुमार  

रात्रि





पश्चिम क्षितिज पर छाई लाली
जैसे छूटी हो अभी – अभी
रंग – भरी पिचकारी
उधर पूर्व– क्षितिज हुई गहरी काली ।
शनैः – शनैः आकाश पीलिया गयी
आंखों की सुरमई– सी गहरा गयी ।
हवा का गति – वेग हुआ मंद
पत्रों का हिलना हुआ बंद ।
कालिमा जम गई हर पत्र पर
खो गया कहीं जीर्ण पत्रों का मर्मर स्वर ।
दूर से आती है एक टूटती हुई आवाज
जैसे टूटा हो अभी – अभी
किसी कलाकार का साज।


- बिनोद कुमार