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Saturday 29 December 2018

युद्ध और शान्ति


यायावर एक ट्रेवलर (YayavarEkTraveler.Com) से साभार 


शान्ति के पुजारी पुण्य देश से
हर बार उड़ती है
शान्ति कपोत
लिए अपनी चोंच में शांति – संदेश का पत्रक ।
और —
हर बार गंतव्य पर
पहुंच कर
क्रूर– दहकती सर्वभुक् युद्धाग्नि की
खूनी लपटों की लपेट में आ – आ कर
फड़फड़ा कर
बलि जाता है ।
और —
हर बार उसके जल – भुनकर
राख हो जाने के पूर्व
‘मिलिटरी हेडक्वाटर’ के ‘वारफेयर कंट्रोल रूम’ के
बस एक सर्तक संकेत पर
उसे बड़ी चतुराई से निकाल लिया जाता है
जो चन्द मिन्टों के बाद
रण – नीति – विशादों के सर्वग्रासी – सर्वनाशी पेटों में
क्रूर हास के साथ समा जाता है ।
और इधर
शान्ति–कपोत–प्रक्षेपक
शान्ति – पूजक देश
शान्ति–संदेश–वाहक कपोत का
बड़ी बेसब्री से इंतजार करता है :
जब अनायास उसकी निर्मम हत्या की खबर लगती है
मनहूसियत के साथ मातम मना लिया जाता है ।
युद्ध और शान्ति की
बस यही दुश्चक्र–नियति है
कि न तो युद्धवादी राष्ट्र से बाज आते हैं
न शान्तिवादी राष्ट शान्ति–प्रयास से ।
फिर भी –
हर बार यही लगता है कि
हिटलर और मुसोलिनी की औलाद
असंख्य – असंख्य रण–श्रेत्रों में जनम जाते हैं
रावण की तामस वृति
अपनी आंतों में खिंच – खिंच कर
लंबी – क्रूर और रहस्मयी हो जाती है
और ‘एण्टी – रावण’ राम बौना पड़ जाता है।

- बिनोद कुमार

Monday 16 July 2018

मच्छर



उनींदी में
बिस्तर पर
मैं लेटा था।
आया वह चुपके से
लगा कभी भरत व्यास
कभी ए . आर .  रहमान
कभी लता–पौड़वाल के
मधुर गीत संगीत सुनाने।

मन ही मन मैं बोला –
भाग अभी
मुझको सो लेने दे।
क्यों मानता,
नहीं आया
अपनी चाल से वह बाज
लगाया सोये सोये ही
कस के दो थप्पड़
था बड़ा अक्खड़
पड़ गया था मेरे पच्चड़
मर गया बेचारा मच्छड़।

- बिनोद कुमार

Sunday 1 July 2018

गजल


हमने जिंदगी–जहर को खूब जम के पिया है,
कांटे–तूफानों में भी हँस–हँस के जिया है।
                                तेरी तो आदत ही पड़ गयी है फेंकने की पत्थर,
                                उसे भी हमने गले से लगाया, फूलों–सा लिया है।
तेरी मधुर बातों में भी छुपा है खतरनाक खंजर, 
नाहक ही तुमने इश्क औ’ ईमान को बदनाम किया है।
                              जब–जब तुमने पायी है जिंदगी जीने को रोशनी,
                              तब–तब तुमने औरों के बास्ते बस अंधकार दिया है।
कैसे जिये कोई इस दुनिया में ‘विनोद’ खाकसार,
फिर भी हमने हँस–हँस जीने को ही जहर पिया है।


- बिनोद कुमार  

रात्रि





पश्चिम क्षितिज पर छाई लाली
जैसे छूटी हो अभी – अभी
रंग – भरी पिचकारी
उधर पूर्व– क्षितिज हुई गहरी काली ।
शनैः – शनैः आकाश पीलिया गयी
आंखों की सुरमई– सी गहरा गयी ।
हवा का गति – वेग हुआ मंद
पत्रों का हिलना हुआ बंद ।
कालिमा जम गई हर पत्र पर
खो गया कहीं जीर्ण पत्रों का मर्मर स्वर ।
दूर से आती है एक टूटती हुई आवाज
जैसे टूटा हो अभी – अभी
किसी कलाकार का साज।


- बिनोद कुमार  

Friday 11 May 2018

पर्यावरण

 
वह भागी-भागी पहाड़ों के पास गई | देखा पहाड़ों की हरियाली क्रशरों, बुलडोज़रों और विस्फोटकों के पास पड़ी दम तोड़ रही थी | वह भागी हुई विभिन्न मंत्रालयों में गई | किसी ने सीधे मुहँ बात तक नहीं की, क्योंकि उसके पास कोई सिफारिशी पत्र नहीं था |
बेचारी क्या करती, गाँव को लौट आयी, तो देखा- खतों की हरियाली बैंको के मियादी खातों में फल-फूल रही है और लोग बाग शहरों की ओर भाग रहें हैं | बेचारी थकी -हारी अपने भाग्य को कोसती चली आ रही थी | उसकी उदासी पर किसी ने उसे टोक दिया – “क्या हुआ तुझे रे पगली ……..?”
“चल हट नासपीटे ……. करमजले……… उत्सवधर्मी ……… सरकारी अनुदानधर्मी ………. तुमलोगों की तो बुद्धी ही हरवक्त सोती रहती है …………….
मुझे क्या ……………… मैं तो अब चली ………………….. तुमलोग अब तमाशा करो ……………….ओर तमाशा देखो…………………..|” 


फिर वो सात समंदर पार भाग गई ओर एक अज्ञात गुफा में बंद हो गई |


अब सारे विश्व में बहस छिड़ी है | हर देश में करोड़ों – अरबों क बजट - प्रावधान किया जा रहा है | सारे महारथी सर खपा रहें हैं | विश्व के तमाम प्रयोगशालाओं, शोध – संस्थाओं , मंत्रालयों में युद्ध स्तर पर खोज जारी हैं -
शुद्ध पर्यावरण की ……, शुद्ध पेयजल की …..|


- बिनोद कुमार