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Wednesday 11 November 2015

बलिदान



‘छोड़ दो मुझे |’ अन्दर से आवाज आयी |

मैं तुझे मार कहाँ रही हूँ? मैं तो बस थोड़ा गर्भजल ले रही हूँ? सुई ने पेडू से सटकर गर्भस्त शिशु से कहा |

‘नहीं..... नहीं..... मैं बालिका हूँ..... मैं संसार देखना चाहती हूँ | मुझे जीने दो.....|’

वह गिडगिडाकर बोली |

अब सुई चौंकी – ‘अरे ! क्या इसकी भी वही गति होगी ?’ फिर संभालकर बोली- ‘तुम जानती नहीं बहन.... यह दुनिया उतनी हसीन नहीं, जितनी तुम समझ रही हो | यहाँ सारी जिन्दगी गुलामी करनी पड़ेगी | जानती नहीं, यहाँ प्रतिवर्ष हजारों जवानियाँ आग को भेंट चढ़ा दी जाती है.....
सोच तो सही, कि क्या तेरे पिता की इतनी औकात है कि तुझ जैसी अनचाही सातवीं बेटी के लिये लाख टेक का दुल्हा खरीद सके? तुझे माँ – बाप का न्यूनतम प्यार भी मिल सकेगा....???’


-‘नहीं..... नहीं..... मैं इतना सब सह नहीं सकूंगी.... मैं तैयार हूँ..... बहन |’ गर्भस्त शिशु ने तड़पकर कहा |

कुछ पाल बाद ही गर्भस्त शिशु जन्म-पूर्व बलिदान के लिये आपरेशन थियेटर में तैयार लेटी थी |


(कई पत्र-पत्रिकाओं में छपी ये लघुकथा पिताश्री की वेबसाइट http://www.geocities.ws/sahityavinod पर २००४ में प्रसारित की गयी)

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