Pages

Friday 3 January 2014

हाँफता हुआ शहर


उस दिन
सुबह–सुबह
पहाड़ के नीचे
ऊँचे टीले पर
खड़े होकर
शहर को गौर से देखा
तो गम में डूब गया
देखा –
काले धुएँ की छतरी तले
वह शहर बलगमी कलेजे से
बेतहाशा काँप रहा रहा था ।

कारखाने की
बड़ी–बड़ी चिमनियाँ
बेखौफ धुआँ
उगलती जा रही थी
और भय की मारी बेचारी
सुकुमारी मुटठी–भर प्यारी हवा
पहाड़ की गोद में दुबक आयी थी।
साफ–साफ दिख रहा था
चिमनियों की सुरसा–तले
सारा शहर बेतरह हाँफ रहा था
बेतहाशा काँप रहा था
पनाह माँग रहा था।

 
२४ दिसंबर २००३ को www.anubhuti-hindi.org पर प्रकाशित ।

No comments:

Post a Comment