Pages

Tuesday 22 July 2014

प्रतिभा

 

विभागीय परीक्षा देने के बाद सबों ने उससे कहा था – ‘महेश, परीक्षा में अव्वल तो तुम्हें ही होना है |’

कुछ दिनों के बाद - निरीक्षक ने कहा था – ‘महेशजी, मुँह मीठा कराइए | चयन-सूची में आप सर्वप्रथम आये हैं |

वह बहुत खुश हुआ था | थोड़े दिनों के बाद जब चयन-सूची प्रसारित की गयी तो कहीं भी उसका नाम नहीं था | सभी ‘च' धातु-गुणधारी चयन कर लिये गये थे |

उस दिन वह बहुत दुःखी  हुआ था | निराशा में ही उसने विभागीय परीक्षा से सम्बंधित तमाम पुस्तकों और नोट्स को जला डाला था, ताकी फिर से भ्रमजाल में न आ सके | इसलिए आजकल अपनी प्रतिभा और डिग्रीयों को घर पर ही छोडकर साधारण मेट्रिक बनकर वह दफ्तर आया करता है - औरों की तरह | वह भूल जाना चाहता है कि वह डबल एम.ए., एल.एल.बी.  भी है |

 

(कई पत्र-पत्रिकाओं में छपी ये लघुकथा पिताश्री की वेबसाइट http://www.geocities.ws/sahityavinod पर २००४ में प्रसारित की गयी)

Sunday 13 July 2014

संध्या




किरण फिसली - फिसली और थम गयी
पेड़ों के अक्षत - निस्तब्ध शाख पर
चुहल करने लगी
शाख से, हर पात से-
कभी इस पर
कभी उस पर
अस्ताचलगामी सूर्य ने पुकारा
’अरी ओ चली आओ'
तत्क्षण किरण ठिठकी
मुड़ी
सिमटी सिकुड़ी
पक्षियों के कलरव - गान सुनती
मृगछौने - सी कुलाचें भारती
अस्ताचल को सरपट लौट गयी |

(पिताश्री की ये कविता हिन्दीनेस्ट.कॉम पर ०९ अगस्त, २००३ को प्रकाशित हुई थी)

Saturday 12 July 2014

प्रात:काल

 

हर प्रफुल्ल पात से

टप-टप कर

शनैः – शनैः

टपक रहा

सुन्दर – मोहक

इन्द्रधनुषी ओस – कण |

 

इठलाती भागी जाती

प्रातिभ मलयानिल के

सुमधुर स्पर्श से पैदा होते

सुमधुर स्वर ……… सर सर |

कल कल …………. छल छल

बहती धारा का चंचल मन

दुग्ध -  फेन - सा निर्मल जल

प्रकृति – प्रान्तर में गूंज रहा

खग -  कुल का मधुर कलरव |

 

जल धारा के आर पार

क्षण का चित – चकोर

बहि:अंतर की आँखे खोलगुप - चुप निरख रहा चहुँओर

प्रकृति के ओर – छोर

हर पोर – पोर |

 

(पिताश्री की ये कविता हिन्दीनेस्ट.कॉम पर ०९ अगस्त, २००३ को प्रकाशित हुई थी)

Thursday 6 February 2014

पूर्णिमा की रात

 
frogs-fancy-cat-tails-fantasy-fire-fly-firefox-persona-frog-full-moon-lily-lily-pads-night-pond-reflection-sky-stars

देखा मैंने उस रात
सरोवर–तट पर
पारदर्र्शी दर्पण–सी
शुभ्र–शीतल जल में
चांद उतर आया था
कुमुदिनी की पंखुड़ियों के
कोमल स्पर्श से
अपने बदसूरत दाग मिटाने को चुपचाप ।

नीरव निर्जन प्रदेश में
मृदुहास लिये
चुपके से
जल विहार करते चाँद को
निर्वसन देखा था मैंने
शुभ्र ज्योत्स्नास्नात ।

रात के अंतिम पहर में
सुवासित कुंज की ओट से
चुपचाप जाते देखा–
मैंने सुन ली थी उसकी पदचाप ।



२४ दिसंबर २००३ को www.anubhuti-hindi.org पर प्रकाशित ।

Sunday 19 January 2014

पृथ्वी–मंगल–युति (२००३) के प्रति


भागी जाती हवा से पूछा –
हे चंचला! क्यों उड़ी जाती हो ?
किधर को उड़ी जाती हो ?
किससे मिलने को आतुर मन जाती हो ?
रूकी नहीं तनिक भी
खिलखिलाती सरपट भाग गयी ।

धरती की हरियाली से पूछा –
अहा! कितनी मोहक तेरी जवानी ?
क्या मुझको देख विहँस रही हो ?
शरमा गयी! चुपचाप खेतों में दौड़ गयी ।

भागी जाती डैनों से आकाश नापती
क्यों कलरव करती जाती हो ?
इतना–सा ही जब चिड़ियों से पूछा –
किसने तुमको इतना सुंदर रूप दिया ?
किसने तुमका उड़ना सिखाया ?
थमी नहीं तनिक भी
पलक झपकते नीले नभ को नाप चली,
बस उसकी कलरव–अनुगूँज ही मेरे पास रही ।

‘अंगारक’ संग चमकते अमावस के तारों से पूछा – क्यों रात–रात भर टिमटिमाते हो ?
दिवस हुए कहाँ छुप जाते हो ?
क्या चंदा–संग मिल सूरज से
अबूझ आंख–मिचौनी करते हो ?
प्रत्युत्तर में बस आंखों में उसने सुरमई भर ली,
मंगल की चमक बढ़ और चली ।

गहरी काली निशा में दूर से आई एक आवाज ॐ
बोल उठा एक उलूक ही तत्क्षण –
‘कोऽहं – कोस्त्वं ……… कोऽहं – कोस्त्वं’ ‘मैं – मैं’ क्यों करता तू हरदम ।

२४ दिसंबर २००३ को www.anubhuti-hindi.org पर प्रकाशित ।

Friday 3 January 2014

हाँफता हुआ शहर


उस दिन
सुबह–सुबह
पहाड़ के नीचे
ऊँचे टीले पर
खड़े होकर
शहर को गौर से देखा
तो गम में डूब गया
देखा –
काले धुएँ की छतरी तले
वह शहर बलगमी कलेजे से
बेतहाशा काँप रहा रहा था ।

कारखाने की
बड़ी–बड़ी चिमनियाँ
बेखौफ धुआँ
उगलती जा रही थी
और भय की मारी बेचारी
सुकुमारी मुटठी–भर प्यारी हवा
पहाड़ की गोद में दुबक आयी थी।
साफ–साफ दिख रहा था
चिमनियों की सुरसा–तले
सारा शहर बेतरह हाँफ रहा था
बेतहाशा काँप रहा था
पनाह माँग रहा था।

 
२४ दिसंबर २००३ को www.anubhuti-hindi.org पर प्रकाशित ।