हर प्रफुल्ल पात से
टप-टप कर
शनैः – शनैः
टपक रहा
सुन्दर – मोहक
इन्द्रधनुषी ओस – कण |
इठलाती भागी जाती
प्रातिभ मलयानिल के
सुमधुर स्पर्श से पैदा होते
सुमधुर स्वर ……… सर सर |
कल कल …………. छल छल
बहती धारा का चंचल मन
दुग्ध - फेन - सा निर्मल जल
प्रकृति – प्रान्तर में गूंज रहा
खग - कुल का मधुर कलरव |
जल धारा के आर पार
क्षण का चित – चकोर
बहि:अंतर की आँखे खोलगुप - चुप निरख रहा चहुँओर
प्रकृति के ओर – छोर
हर पोर – पोर |
(पिताश्री की ये कविता हिन्दीनेस्ट.कॉम पर ०९ अगस्त, २००३ को प्रकाशित हुई थी)
No comments:
Post a Comment