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Saturday 12 July 2014

प्रात:काल

 

हर प्रफुल्ल पात से

टप-टप कर

शनैः – शनैः

टपक रहा

सुन्दर – मोहक

इन्द्रधनुषी ओस – कण |

 

इठलाती भागी जाती

प्रातिभ मलयानिल के

सुमधुर स्पर्श से पैदा होते

सुमधुर स्वर ……… सर सर |

कल कल …………. छल छल

बहती धारा का चंचल मन

दुग्ध -  फेन - सा निर्मल जल

प्रकृति – प्रान्तर में गूंज रहा

खग -  कुल का मधुर कलरव |

 

जल धारा के आर पार

क्षण का चित – चकोर

बहि:अंतर की आँखे खोलगुप - चुप निरख रहा चहुँओर

प्रकृति के ओर – छोर

हर पोर – पोर |

 

(पिताश्री की ये कविता हिन्दीनेस्ट.कॉम पर ०९ अगस्त, २००३ को प्रकाशित हुई थी)

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